Literature

               एक दंत हे गजानन कुछ तो करो उपाय

         चित्र उकेरूँ मन से तू तुलिका बन जाए

नरसंहार दिवस 19 जनवरी 1990

 

कहते हैं कि तुम भूल जाओ

बोलोए कैसे भूल जाऊँ मैं

 

आँखों में डर की वह तस्वीर

माथे पर वो तनाव की लकीर

और रंग उड़े उन चेहरों को

बोलो] कैसे भूल जाऊँ मैं 

 

हर पडोसी पर शक की नजर

मुहल्ले की कानाफूसी से डर

 

कराहते वक्ष की पीड़ा को 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं  

 

हवा में आतंक की गंध को 

वितस्ता के टूटते तटबन्ध को

चिनार के उन घायल वृक्षों को

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं  

 

मकानों की खण्डहर दीवारें 

मन्दिरों के खामोश नज़ारे

और तीर्थों के सूने आँगन को 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं  

 

वह फूलों की लुटी हुई सुगंध 

निर्मल हवा में फैली वह दुर्गंध

नुंचे पड़े श्वेत कमल झील के 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं  

 

गंगा-जमुनी तहज़ीब थी धोखा  

दोस्त ने दुश्मन बन खंजर घोंपा

और सीने के उस गहरे घाव को 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं

 

फिर घर लौट कर जाने की आस

झेलम के दिव्य अमृत की प्यास

और सुनहरी बर्फीली वादी को 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं

 

शिवरात्रि पर शंखों का नाद

क्षीर भवानी का पुन्य प्रसाद 

केसरिया पकवानों का स्वाद

बोलो] कैसे भूल जाऊँ मैं

 

कहते हैं कि मैं भूल जाऊँ उसे

उस वादी में भूलूँ भला किसे

बसी है जहाँ पुरखों की आत्मा

बोलो, कैसे भूल पाऊँ मैं

 

वे कहते हैं, कि भूल जाओ

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं


मैंने देखा


मैंने देखा एक दीपक,

नीर की लहरों के साथ में 

अंगडाइयाँ लेता हाथ में 

ख्ुाली किताब लिए

कितने वादे किए

लहरों को चुनौती देता हुआ

अपनी कला का प्रदर्षन करता हुआ

था मुस्कुरा रहा।


मैंने देखा एक दीपक,

अपनी धुन में बहता 

दूर जाने को कहता

मंद गति से चला जा रहा 

कितने ही भंवर लिए जा रहा

सुध न देखने की न खाने की

बस न जाने कौन सी मंजिल पाने की

था कहता रहा।


मैंने देखा उसका,

सूरज भी हास्य करते हुए

व्यंग्य भरी मुस्कान भरते हुए

छटा भिखेरता अपने धूप की

ललकारती मुद्राऐं जोषीले रूप की

षर्म और हया को अंदेखा करते हुए

उस नन्ही जान को चुनौती देते हुए

था बहता रहता।


मैंने देखा हवा का,

तेज रुख भी नर्म न पडा

उसकी लौ बुझाने बढा

ताकत और घमंड में अपने

मदहोष देखता हराने के सपने

भोले लाचार पर बल आजमाता

कर्तव्य भूल अपना लोहा मनवाता

था प्रयास कर रहा।


मैने देखा प्रकृति को,

चुपचाप सब कुछ कहते हुए

भीष्म पितामह जैसे सहते हुए

मोल चंका रही हो नमक का

हवा और सूर्य की चमक का

दीपक के एहसानों को भूल रही थी

अपनी बेवकूफी पर फूल रही थी

यह दृष्य हर रहा।


मैने देखा उस दीपक की,

मुस्कुराहट भी अजब प्यारी थी

मौन, पर हिमालय से भारी थी

ऊर्जा मेरी अपनी नहीं है उधार की

मुझे जला सको है जरूरत अंगार की

मेरा क्या पडा रहूँगा हो मन्दिर या षमषान

हवा, प्रकृति और सूरज तुम्हें हुआ अभिमान

था वह बोल रहा।


मैंने देखा उसे कहते,

तुम बलवान हो तो मैं भी कम नहीं

तुम मेरे साथी नहीं इसका भी ग़म नहीं

है मुझे अंधेरे का साथ और परवाने की आस

पूछो उसे जो मुझे खिलाता है बिठाके पास

वह हाथ है प्रभु के जिसने मुझे अपनाया

ऋणी हूँ मैं उसका जिसने मुझे बनाया

था वह मन को खोल रहा।


मैंने देखा उसकी नमृता,

उसका अटूट स्नेह मालिक से अपने

वह जवान था लिए आँखों में सपने

किसी का खोफ उसके मन को न हिला सका

किसी का प्यार उसको उससे न मिला सकता

जिसने इस संसार को बनाया हैं

आँखें खोल मेरी यह सिखाया है

है प्रेम ही जीवन की रेखा

मैंने देखा मैंने देखा मैंने देखा,,,,,,,,।