HINDI

          तू शक्ति तू परमेश्वर है तू ही मेरा राम

         अब मेरा मस्तक बनो शुरू करूँ मैं काम


श्री राम जी के प्राण प्रतिष्ठा के अवसर के लिए मैंने 

यह छोटी सी कविता भी लिखी है। कृपया पढ़ें ।


राम आए है मेरे द्वार


अब सब झूम के नाचो, गाओ और सजाओ हार ।

हर्षित होकर धूम मचाओ राम आए हैं मेरे द्वार


कितना तडपे कितना रोये लम्बे तेरे वियोग में

पल पल भीते कठिनाई से मरते रहे वियोग में

युग युगों की वह प्रतीक्षा अब आई होकर साकार

हर्षित होकर------------------------------- ।


सुनी कथा मर्यादा की थी जग में जब से मैं आया

मन में आशा जग गई थी नहीं दर्शन ही हो पाया

तब से तेरा नाम जपा है और हुआ है तुम से प्यार

हर्षित होकर------------------------------- I


अब आए हो नाश करो तुम पापों को संसार में

करो अंत सब भक्षक के तुम अपने ही दरबार में

जैसे किया था दैत्यों का तुम ने पूरा तब नरसंहार

हर्षित होकर------------------------------- ।


आज तुम्हारी नगर अयोध्या जैसे चमके फुलवारी

जगह जगह पर भजन सुनाते देश के सब हैं नर नारी

बरस रहे हैं कण कण से अब धर्म सनातन के उपहार

हर्षित होकर------------------------------- ।


सज रहा है महल यह तेरा बलिदानों के बाद में

मिट कर भी हमने ना छोड़ा असुरों के विवाद में

पूरा भारत आनंदित है सब कुछ बरस रहा भरमार

हर्षित होकर------------------------------- ।


पाप सभी के हर के जाओ अवध पुरी के हे महाराज

कोई वचित ना रह जाए पूर्ण करो सबके तुम काज

ताकि "रवि" भी कलाकृति से करदे सब का सुख साकार

हर्षित होकर------------------------------- ।


रवि धर

Website:- artistravidhar.in





नरसंहार दिवस ; 19 जनवरी 1990

 

कहते हैं, कि तुम भूल जाओ

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं

 

आँखों में डर की वह तस्वीर

माथे पर वो तनाव की लकीर,

और रंग उड़े उन चेहरों को

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं

 

हर पडोसी पर शक की नजर

मुहल्ले की कानाफूसी से डर,

कराहते वक्ष की पीड़ा को, 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ? 

 

हवा में आतंक की गंध को, 

वितस्ता के टूटते तटबन्ध को

चिनार के उन घायल वृक्षों को,

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ? 

 

मकानों की खण्डहर दीवारें, 

मन्दिरों के खामोश नज़ारे,

और तीर्थों के सूने आँगन को, 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ? 

 

वह फूलों की लुटी हुई सुगंध, 

निर्मल हवा में फैली वह दुर्गंध,

नुंचे पड़े श्वेत कमल झील के, 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ? 

 

गंगा-जमुनी तहज़ीब थी धोखा,  

दोस्त ने दुश्मन बन खंजर घोंपा,

और सीने के उस गहरे घाव को, 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?

 

फिर घर लौट कर जाने की आस,

झेलम के दिव्य अमृत की प्यास,

और सुनहरी बर्फीली वादी को, 

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ? 

 

शिवरात्रि पर शंखों का नाद,

क्षीर भवानी का पुन्य प्रसाद 

केसरिया पकवानों का स्वाद

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं? 

 

कहते हैं कि मैं भूल जाऊँ उसे,

उस वादी में भूलूँ भला किसे,

बसी है जहाँ पुरखों की आत्मा,

बोलो, कैसे भूल पाऊँ मैं? 

 

वे कहते हैं, कि भूल जाओ

बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ? 

 


पन्ना का बलिदान


क्रूर हाथ बनवीर के

शर्मसार कर गए हमें।

बहाके खून मासूम का

तार-तार कर गए हमें।।

 

पन्ना का कलेजा फटने लगा

बनवीर गया जब मुस्काते।

पर उफ न किया और चुका दिया

ऋण माटी का हंसते गाते।।

 

क्यों झोंक दिया मुःख मरण मुझे

क्या था मैंने अपराध किया।

दे देती राज बनवीर कोे

क्यों निर्दय उसे बना दिया।।

 

जब सुना प्रश्न उस कोमल का

वह बोली मेरा हाल तू सुन।

ऋण देष का हमें चुकाना है

ऐसा करना था लाल तू सुन।।

 

तूने ऐसा बलिदान किया

सब जग करेगा तुझे नमन।

यदि हर एक ऐसा वीर बने

हो जाए अपना देष चमन।।

 

कठोर बनाके जब मन को             

दर्शन करने वह पास भगी।

हृदय की धडकन थम सी गई     

उसके जीने की आस जगी।।

 

मुःख से जब कपड़ा हटा लिया

मासूम की आँखें खुली मिली।

थी नहीं उदासी नयनों में

बस हो गई थी वह पथरीली।।

 

मानो कह रहा था हे माता

आहूती मेरी दे ड़ाली।

अभी काम तुम्हारा है बाकी

अब छोड़ ना कुँवर को तू खाली।।

 

कर्तव्य उसे तू सिखलाना

हो जाए जग का वह माली।

इस मरू को वह मधुबन कर दे

हर ड़ाल लिखे बस खुषहाली।।

हर प्राणी का सानी वह बने


कर दे ऐसा बुद्धिमान उसे।

जो बैर मिटा दे हर एक का

देदे ऐसा वरदान उसे।।

 

आँखें पन्ना की भर आई

और रुकी न अश्रु की धारा।

पोंछा आँचल से मुख उसका

लगा था जिस पर लहु सारा।।

 

पुत्र मोह ने दस्तक दी

सिर को धरती पर दे मारा।

था ललना उसका पड़ा निढ़ाल

ना रोक सकी अश्रु धारा।।

 

सिंहनी का कलेजा काँप उठा

और बिलख उठी पन्ना माई।

बिजली चमकी बादल गरजे   

आकाश से एक वाणी आई।।

        

हे वीराँगना तू यह सुन

नतमस्तक रहेगा हर वासी।

झकझोर दिया है मानव को 

क्या काम किया है हे दासी।।

 

देष बड़ा है पुत्र से

ऐसा तुमने प्रमाण दिया।

उदय तो एक बहाना था

चित्तोड़ को बस सम्मान दिया।।

 

ना हुआ है और ना अब होगा

दानी कोई पन्ना जैसा ।

मिट जाओ देष की खातिर तुम

सुनलो इसमें ड़रना कैसा।।


भीते वर्षों के सफर में छूट गई सब यादें


केसर की सजाई थी जहाँ क्यारियाँ

मिली नव काँटों की वहाँ फुल्वारियाँ

नफरत भरे आक्रोशित खूनी सफर में

भस्म हुए वहाँ सहिष्णु मानवता के वादे

भीते वर्षों के सफर में रह गई सब यादें


प्रेम से पुकारते स्वर उन सज्जनों के

फिजा में गूँजते शंख नाद भजनों के

पाषाण भूमि की कोख से निकलती

रब को पुकारती दर्द भरी फरियादें

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें


वतन छूटने का घाव अभी है अभी भी है

वहाँ फिर से बसने का मर्म है अभी भी है

बूढ़ी आँखें ढूँढ़ती घरोंधों को अभी भी है

बस आस बाकी पर पक्के हैं इरादे

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें


वह नदियों के शुद्ध जल की कल कल

वह मेघों के बरसते नीर की छल छ्ल

प्रभात में केसरिया रंग भिखेरता सूर्य

और पहाडों से पिघलते बर्फ की बातें

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें


नब्बे की रात को दरिंदे बेखोफ सजाते

गोलियों की आवाज बस डर भरपाते

भयभीत वह चीखें बस मृत्यु दर्शाते

आतंक के साए में बीती भयावह रातें

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें


अन्धलोचन बने तंत्र उन सरकारों के

जेहाद में सने बोल उन मक्कारों के

नुची पडी थी लाज उन माँ बहनों की

हर मासूम पे लटक रही थी लतवारें

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें


थी मूक दर्शक बनी व्यवस्था न्याय की

मुजरिम को मजलूम बनाती राय की

मुरझाए पन्ने थे जंग खाए आईन के

लिखी थी जिसमें जीव सुरक्षा की बातें

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें


चिल्लाते कंठ सूख गए सब प्यारों के

नरभख्शीए धर्मांध बने हाथियारों से

खेल रहा था क्रूर शत्रु सीमा पार से

साजिश बड़ी हो रहे साफ थे इरादे

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें


उस पुन्य भूमि की घरती को नापाक किया

जहाँ विद्वानों ने जीवन अपना खाक किया

निज रक्त से सींचा उन ग्रंथों की पतवार को

डुबोदी थी भक्ति रस में दिन और रातें

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें


ॠषी.मुणी जहाँ संत समाज ने दी वाणी

वहाँ अमरनाथ में शिव बैठा संग शिवाणी

काशमीर को स्वर्ग कहा था जिन्हों ने

मिथ्या नहीं थी उन कवियों की वह बातें

भीते वर्षों के सफर में रह गई यादें




         एक दंत हे गजानन कुछ तो करो उपाय

         चित्र उकेरूँ मन से तू तुलिका बन जाए


          तू शक्ति तू परमेश्वर है तू ही मेरा राम

         अब मेरा मस्तक बनो शुरू करूँ मैं काम


1 बहुत करी है चाकरी अब कुछ अपना होय

        जीवन में बस बहुत कुछ अब करना है मोय


2 जग का सब कुछ छोड के कहां चला तू भाय

        मन के अंदर झांक ले वहां उसे तू पाय


3 अपने दुख को भूल के दूजे को अपनाय

        खुद के मन को बल मिले भगवन खुश हो जाय 


4 सभी तुम्हारा नाम ले पर ना तुझे वह पाय

        माँ-बाप को भूल के कहां प्रभु मिल जाय


5 दिल को छोटा ना करो लगे रहो दिख जाय

        प्रेम की माला जाप ले तभी प्रभु मिल जाय


6 दौडे तो जीवन बने रुकना मौत हो जाए 

        जैसे रुके तालाब का सब पानी सड जाए


7 बस्ती-बस्ती घूम के जीवन दियो भिताय

        समय हुआ जब बसने का तभी अंत आजाय


8 राम-रहीम को बांट के बहुत मचाया षोर

        पापों का जब घडा भरा अब क्यों करता गौर


9 लालच तेरे मन बसा फिर भी मन मचलाय

        अनैतिक धन संचय करे मन में पाप समाय

 

10 जान हथेली पर रखे उसको कौन डराय

        निर्बल को जब बल मिले शक्ति मन में समाय


11 निर्बल का षोषण करे नहीं वीर हो जाए

        अपने देष पर मर मिटे वही वीर कहलाय


12 नारी का सम्मान करे किस्मत घर में समाय

        उसको जो भी कष्ट दे वह दरिद्र हो जाए


13 देष तुम्हारा तब बचे जब मानव बच जाए

        सीमाओं को बाँट कर नफरत क्यों पनपाए


14 माली चिंता ना करे वह कब को फल पाए

        सेवा वह करता रहे फल खुद ही आ जाए


15 धोखा देकर सुखी बने इस सुख को ना भोग

         कहीं तुम्हारे साथ भी यही करे ना लोग


16 दुख में राम को याद कर सुख की इच्छा होय

        सुख में उसको मन भर ले दुख कभी ना होय


17 करुणा सब की दूर करे जब आँसू बह जाए

        इस आँसू को देखलो सुख में भी बह जाए


18 स्वर्ग-नर्क को याद कर सब तीर्थ तू जाए

        जैसे षस्त्र को देख के षत्रु भी डर जाए


19 माता तेरी जानकी पिता राम कहलाए

        दर-दर रवि क्यों भटके घर बैकुंठ समाए


20 माँ के चरण तू धोय ले सभी पाप मिट जाए

        जैसे वर्षा होते ही प्रकृति जीवन पाय


21 सकल जगत अपना घर है धरती माँ कहलाए

         इसकी जो रक्षा करे वही छाँह पा जाए


22 प्रातः उसको याद करे दिन भर सुख वह पाए

        जैसे दिनकर दिखते ही सारा तम मिट जाए


23 राजा का सुख बूँद है गागर ना भर जाए

        सेवक बन कर तुम देखो सागर ही मिल जाए


24 साथ-साथ चलते रहो नही करो तुम बैर

        सब प्राणी अपने ठहरे नही है कोई गैर


25 खून की लाली एक है हाड-माँस सब एक

         रवि नफरत को छोड़ दो बन जाओ सब नेक


26 अल्लाह कहो या राम है सबका एक ही धाम

        पीर पराई जान ले यही तुम्हारा काम


27 सुख-दुख मन का खेल है सदा रहो तुम साथ

        जग में सब कुछ सम्भव है होए हाथ में हाथ


28 राम भजो या ष्याम भजो मन तो भटका ओर

        नीयत में ना खोट हो इस पर करलो गोर


29 जितना संचय धन करे उतना मन ललचाए

खुद ना उसका भोग करे बस दूजे खाजाए


30 धन के पीछे सब चले धन भगवन बन जाए

धन तो रवि बस मन बसे अपनों को ठुकराए


31 जब तक तुम नादान रहो अश्रु मित्र बनजाए

थोडा अनुभव मिलते ही अश्रु शत्रु हो जाए


32 आँखों को कमजोर समझ आँसूँ बैरी होय

आँसूँ को रवि मत रोको मन के पाप ये धोय।


33 समय गंवाया हेर-फेर में जीवन भीता मस्ती में।

        अंतकाल रवि निकट भया उसको ढूँडे बस्ती में। 


34 सुन्दर तन बुद्धी भटकाए, दुखों को न्योता दे आए

        मन सुन्दर हो ध्यान करो तुम इसमें ही बस स्वर्ग समाए 


35 मैं तेरी कल्पित छवि छोडो तुम अभिमान

        तब तू मेरा ध्यान करे नहीं रहे जब जान


                     मरू वीराँगना


देश प्रेम ने बना दिया कठोर दुःख में।

अपने सुत को झोंक दिया मृत्यु के मुःख में।।


राणा की झोली में ड़ाली देह रक्त सनी।

भोला था वह बालक था न थी समझ घनी।।


बोला धाय कहाँ से लाई खून सनी यह काया।

बाल मेरे यह लाल है मेरा तू ना समझे माया।।


अपने ही जब शत्रु होते कुछ न दिखे तब सगा-पराया।

बल रावण का पस्त हुआ अपना भाई ही उसे हराया।।


दुनिया की यह रीत है ललना यहाँ अर्थ प्रधान है।

निबर्ल का जो शोषण करता कहलाता वही महान है।। 


दुःखी न हो तू पन्ना माई दूजा पुत्र ले आऊँगा।

ममता तेरी ऋण चढ़ी है जन्म-जन्म तक चुकाऊगा।।  


आँखें भर आई सिंहनी की जोर कलेजे उसे लगाया।

दुःख सारा वह भूल गई प्रेम का सागर उसमें जग आया।। 


देवलोक भी अचरज था पन्ना पे अमृत बरसाया। 

अमर हुई इतिहास रचाया ईष भी आके शीश झुकाया।।  


धन्य-धन्य हो मरू माटी का गर्भ में जिसके हीरा जैसा। 

नमन करूँ उस मानस को बलिदान किया जिसने ऐसा।। 


मैं कश्मीरी पंडित हूँ

कहते है .

पूर्वजों का ज्ञान मेरे रक्त में प्रवाहित है

परमात्मा की दिव्य ज्योत में समाहित है

परम शिव का साक्षात्कार किया है

जिसने सृष्टि को आकार दिया है

उस ब्रह्म ज्ञान का प्राण हूँ मैं

संसार में ध्यान का प्रमाण हूँ मैं

सब से समृद्ध और बुद्धिमान कहलाया

धर्म गुरू तथा पंडित का सम्मान पाया

शारदा के ज्ञान पीठ का निर्माण किया

सनातन संस्कृति का गुणगान किया


पर आज मैं आहत हूँ।


700 वर्ष पूर्व मेरे संहार का आरम्भ हुआ

विदेशी नराधम आक्राँताओं से प्रारम्भ हुआ

मेरे स्वर्णिम साहित्य को ध्वस्त किया गया

मेरे दिव्य साहित्य को निरस्त किया गया

काया ही नहीं आत्मा में भी घाव भरे

गुलामी की जंजीरों से लजित भाव भरे

मेरे आराध्य का भवन खंडित  किया

अपनी पशुता को महिमा मंडित किया

फिर भी अपनी पीडा को न दिखाया मैंने

सहिष्णुता के ज्ञान को सिखाया मैंने

अपने दर्द को पूर्णतः से छुपाता रहा मैं

अपमान के हर घूँट को सहता रहा मैं

निर्बल प्राणी को शतकों से सताते रहे वे

स्वर्णिम गरिमामयी युग को झूठ बताते रहे वे

आज मै अनाथ बना एक निसहाय हूँ

न्याय की आकांक्षा लिए असहाय हूँ

खडा हूँ पर राजतंत्र के दावपेचों में फंसा

अपने देश में शरणार्थी की छाप से धंसा

न्याय की गुहार में दर.दर भटकता हूँ

रजनीतिक दलों की आँख में खटकता हूँ

जीवित रखे स्मृति अपनी मातृभूमि की

पूर्वजों की जन्मस्थली व कर्मभूमि की

हृदय में सतत अग्नि को बुझने न दूँगा

अरमानो की अर्थी को सजने न दूँगा

अपनी जान की बाज़ी लगाने में प्रयासरत

उन सब पापों का हिसाब माँगने को आश्वस्त

उस नरसंहार को अपने सीने में दबाए हूँ

दुख का बोझ ढ़ोता अस्मिता को बचाए हूँ

फिर भी मिथक लोकतंत्र पर मझे विश्वास है

अपने सपनो को साकार करने का प्रयास है

अपने राष्ट्धर्म के लिए दंडित  हूँ

इस देश का मैं कश्मीरी पंडित हूँ।


पता है न्यायिक संम्भावना मुझ से दूर है

क्योंकि न्याय अहंकार के मद मैं चूर है

हर तंत्र में आशा की किरण नजर आती है

जो पूर्वजों की तपो भूमि की याद दिलाती है

लोक संस्कृति को जीवित रखना लक्ष्य है

उसके लिए मेरा प्रयास स्वतः दक्ष है

रक्त की अंतिम बूँद तक आस नही त्यागूँगा

मात्र भूमि को लिए बिना श्वास नही त्यागूँगा

न्याय मिलने के परिणाम की आस लगाता हूँ

बधिर प्रजातंत्र को गहन निद्रा से जगाता हूँ

तब मैं अपने पूर्वजों के ॠण से उऋण हो पाऊँगा।

और फिर से शायद पीडित नहीं कहलाऊँगा।

अपनी स्मृतियो में भी मैं खंडित हूँ।

मैं एक आभागा कश्मीरी पंडित हूँ।